Saturday, January 1, 2011

पप्पू मामा

एक बरगद की छाया में
  दिन गुज़रते थे कभी,
  टहनियों से लटक के झूल लेते थे,
  शाम की छाँव में पराठे और चाय तो
  रोज़ की ही आदत थी,

लिबास पे चिपकी धूल
  जिसकी झाड से साफ़ होती थी,
  और मोटरसाइकल की पहली नसीहत भी
  उसी के ही इर्द गिर्द थी,

ठिठुरते हाथों को अलाव की गर्मी
  जिसके नीचे ही मिल जाती,
  कोहरे की आड़ में धुआं भी
  उसी शाख के पीछे सुलग जाती थी,

तभी किसी ने साथ छुडवा कर
  शहर तबादला करवा दिया
  और पता चला की दीमकों को
  खबर लग गयी इस पेड़ की,

आते जाते समझता तो था
  की वो मुरझा रहा है,
  पर खोखलेपन के लिए
  कोई मीठी गोली न ढूँढ पाया,

आज उस घोसले तक पहुंचा
  जो झाड़ में ही छुपा था,
  पता चला लकड़ी गिरने से पहले ही
  चूजों ने उड़ना सीख लिया था !

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