Sunday, June 6, 2010

बचकाना बचपन

कुछ ऐसी सोच थी की,
कागज़ के परों में ही हवा समेट के उड़ जायेंगे,
अम्मी आवाज़ देती रहेंगी,
पर न सुन पाने का बहाना कर पायेंगे !

अँधेरे के डर में,
तकियों में पलकें दबा के सो जायेंगे,
और सहर होते ही,
धुंधली आँखें लिए पापा से चिपक जायेंगे !

घंटों निकल जायेंगे,
जब सहमी सी चींटियों को रस्ते सुझायेंगे,
झुंझलाकर जब वोह काट लेंगी,
तो छोटा सा बदला  छुपा पायेंगे !

दिन में तितलियों की आशिकी में,
झाड़ियों के काँटों से लड़ जायेंगे,
और रातों में जुगनुओं की चान्दिनी में,
भागें ही चलें जायेंगे !

वो पहली बारिश का सौंधापन,
कपड़ो पे सजा के ले आयेंगे,
फिर जीत के वो कश्तियों की दौड़,
पूरा जहां जीत जायेंगे !

 किताबों से प्यारी रहेंगी पतंगे,
रंगों से माझें पहचान पायेंगे,
पेंचों में अटकी रहेंगी सांसें,
और कट जाने पर हैरत जता पायेंगे !

कहते है की,
'वो समय ही कुछ और होता है !',
जब बेफिक्रत की आदत होती है,
अब तो हर पल एक रहती है !

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